इतनी बेपनाह… चाहत क्यों करे
लगाए दिल मोहब्बत क्यों करे।
दुश्मनी है क्या…. मैं जानता नहीं
शक्लो सूरत से नफरत क्यों करे।
न मैं राहे चराग़…. न ही आफताब
मुझसे रौशनी की हसरत क्यों करे।
आदतों में अब… बचपन रहा नहीं
शोख चंचल सी शरारत क्यों करे।
लहू के रंग में छुपा. है क्या अदब
क्यों झुकाएँ सर ज़हमत क्यों करे।
~~ अश्विनी बग्गा ~~
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2 thoughts on “ग़ज़ल 003 – इतनी बेपनाह चाहत”
Kya baat he…
Thank you Aslam Bhaai Jaan
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